इस देश में गाँधी नाम के प्रमाणपत्र बाँटने का ठेका केवल गिने चुने खानदानों या उनके लाभार्थियों ने लेकर रखा है. इन लोगों को लेफ्ट से कोई समस्या नहीं है, जिनके हाथ दुनिया में सबसे ज्यादा खून से रंगे हैं, अपितु लेफ्ट तो इन लोगों का वैचारिक साझीदार है.
गाँधी हो या नेल्सन मंडेला, अब्राहम लिंकन हो या मार्टिन लूथर किंग, महात्मा कभी कट्टर नहीं होते. यदि आज गाँधी जीवित होते तो शायद संघ के साथ किसी राष्ट्रिय मुद्दे पर लोकभावना बदलने के लिए संवाद भी कर लेते, किन्तु आज के कथित गाँधीवादियों के दौर में यह संवाद असंभव हो चुका है.
बालासाहेब देवरस विनोबा से अक्सर मिलते थे, प्रणव दा संघ के मंच पर जाने में कोई आपत्ति नहीं रखते थे, लोहिया और जयप्रकाश नारायण को नानाजी देशमुख जैसे कट्टर संघी के साथ काम करने में कोई आपत्ति नहीं थी, बै. राजाभाऊ खोब्रागडे जैसे कट्टर आम्बेडकरवादी को संघ के साथ मंच पर आसीन होने में कोई शिकायत नहीं थी. किन्तु आज के गाँधी लाभार्थियों को इससे समस्या है, सदा रहेगी.
क्योंकि गाँधी के बिना इनकी कोई पूछताछ नहीं होगी. गाँधी इन लोगों के लिए जीवन शैली नहीं, एक हथियार है. गाँधी इनके लिए आईना नहीं, एक पत्थर है, जिससे दूसरे विचार को घायल किया जा सकता है, शर्मिंदा किया जा सकता है. ये रोज गाँधी को बेचते है, अपनी दुकानदारी चलाने के लिए, अन्यथा दुनिया को देने के लिए कोई मौलिक देन इनके पास नहीं है.
क्या स्वयं गाँधी आज होते तो अपने विरोधी विचार वालों से इसीतरह पेश आते? चालीस के दशक में गाँधी अरबिंदो घोष से मिलने पांडिचेरी गए थे, अरबिंदो मिलना नहीं चाहते थे, किन्तु गाँधी फिर भी उनसे मिलने चले गए थे. घोष ने मिलने से इंकार कर दिया क्योंकि उनके रास्ते अलग थे. किंतु इससे गाँधी का व्यक्तित्व हमारे सामने आता है. गाँधी तो सावरकर से भी मिलना आवश्यक समझते थे. क्योंकि गाँधी को देश जोड़ना था. एक विशाल सपने को पूरा करने की यात्रा पर सभी को साथ लेकर चलना था. गाँधी से महान हिंदू पिछले दो चार सदियों में शायद ही कोई हुआ होगा.
किंतु क्या यही बात गाँधी नाम के लाभार्थियों को लेकर कही जा सकती है? जितनी नफरत संघ के किसी मूढ़ अंधे स्वयंसेवक में अपने विरोधी को लेकर हो सकती है, उससे जरा भी कम गाँधी के इन लाभार्थियों में नहीं है.
उसमें भी मजे की बात यह है कि ये सभी लोग अपनी-अपनी खाप पंचायत खोल कर बैठे है, जहाँ पर वे ही मुकदमें सुनवाई के लिए हाथ में लिए जाते है, जिसमें संघ को दोषी के कटघरे में खड़ा किया जा सकें. जिन कमियों के लिए संघ दोषी है, क्या उसी कट्टरता के दोषी इस देश के मिशनरीज, ईस्लामी मतों का एकत्रीकरण करनेवाले, आदिवासी समुदाय की राजनीति करनेवाले नहीं है? महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में बराबरी का अधिकार देने के मुद्दे पर इनमें से कौन सबसे अधिक आधुनिक है? दूसरे धर्म के माननेवालों को अपने दायरे में स्थान देने को लेकर तुलनात्मक रूप से कौन अधिकतम उदार है? धर्म और भूमि की संस्कृति पर खड़ा कोई भी संघठन अनिवार्य रूप से कट्टर तो होगा ही, किंतु प्रश्न यह है, कि क्या वह अपने आसपास दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए तैयार है, अथवा नहीं?
जिस दौर में मिडिया का स्वामित्व कुछ गिने चुने अमीरों के हाथ में था, तब यह लाभार्थी होना और गाँधी नाम के प्रमाणपत्र बाँटना काफ़ी फायदे का धंदा था. किन्तु दुर्भाग्य से आज जमाना सोशल मिडिया का है. यहाँ सभी के हिस्से के पाप और पुण्य माउस की एक क्लिक पर मिल जाते हैं.
आज की पीढ़ी को ज्ञात है कि गाँधी का नाम ले लेकर कितने लोगों ने पीढ़ियों की कमाई जमा की है. कितने सेकुलर लोग अपने बच्चों की शादियाँ सेकुलर ढंग से करते हैं. उनके जीवन जीने का पैसा कहाँ से आता है, उनके चुनाव लड़ने का पैसा कहाँ से आता है. उनके बच्चे कहाँ पढ़ते है. दुनिया के सबसे धनाड्य लोगों को भी लजा दें, ऐसी जीवनशैली ये भाग्यशाली खानदान किन लोगों की मेहनत से जी रहे हैं.
लोगों को संघ से शिकायत है, बजरंग दल जैसी उसकी शाखाओं के सार्वजनिक प्रदर्शनों से मुझे भी कई बार बेहद वेदना होती है. किंतु फिर इन लाभार्थी लोगों के चुनकर आने के बाद की हरकतें देखता हूँ, समाज को अपनी गिरफ्त में लेने की पिपासा देखता हूँ, मानवीय गरिमा इनके अय्याश बंगलों के सामने बार बार तार तार होते देखता हूँ, तो मैं अपनी वेदना को शमित कर लेता हूँ.
प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि वह संघ को अधिक से अधिक उदार होने का रास्ता बताये. एक उदार, बाजार समर्थक के लिए, मानवीय गरिमा के समर्थक के लिए, जीवन में कम से कम सरकारी हस्तक्षेप के पैरोकार के लिए,कोई दूसरा रास्ता आपकी दृष्टी में होगा, तो मुझे अवश्य बताइये. मैं खुद को बदलने के लिए हर घड़ी तैयार हूँ.
क्योंकि मेरा विश्वास किसी भी विचार से अधिक जीवन की अधिकाधिक सुदंरता की मंजिल को प्राप्त करने में हैं.
एड. दिनेश शर्मा, पुलगांव