Friday, June 23, 2023

गाँधी नाम की दुकान


इस देश में गाँधी नाम के प्रमाणपत्र बाँटने का ठेका केवल गिने चुने खानदानों या उनके लाभार्थियों ने लेकर रखा है. इन लोगों को लेफ्ट से कोई समस्या नहीं है, जिनके हाथ दुनिया में सबसे ज्यादा खून से रंगे हैं, अपितु लेफ्ट तो इन लोगों का वैचारिक साझीदार है.
गाँधी हो या नेल्सन मंडेला, अब्राहम लिंकन हो या मार्टिन लूथर किंग, महात्मा कभी कट्टर नहीं होते. यदि आज गाँधी जीवित होते तो शायद संघ के साथ किसी राष्ट्रिय मुद्दे पर लोकभावना बदलने के लिए संवाद भी कर लेते, किन्तु आज के कथित गाँधीवादियों के दौर में यह संवाद असंभव हो चुका है.
बालासाहेब देवरस विनोबा से अक्सर मिलते थे, प्रणव दा संघ के मंच पर जाने में कोई आपत्ति नहीं रखते थे, लोहिया और जयप्रकाश नारायण को नानाजी देशमुख जैसे कट्टर संघी के साथ काम करने में कोई आपत्ति नहीं थी, बै. राजाभाऊ खोब्रागडे जैसे कट्टर आम्बेडकरवादी को संघ के साथ मंच पर आसीन होने में कोई शिकायत नहीं थी. किन्तु आज के गाँधी लाभार्थियों को इससे समस्या है, सदा रहेगी.
क्योंकि गाँधी के बिना इनकी कोई पूछताछ नहीं होगी. गाँधी इन लोगों के लिए जीवन शैली नहीं, एक हथियार है. गाँधी इनके लिए आईना नहीं, एक पत्थर है, जिससे दूसरे विचार को घायल किया जा सकता है, शर्मिंदा किया जा सकता है. ये रोज गाँधी को बेचते है, अपनी दुकानदारी चलाने के लिए, अन्यथा दुनिया को देने के लिए कोई मौलिक देन इनके पास नहीं है.
क्या स्वयं गाँधी आज होते तो अपने विरोधी विचार वालों से इसीतरह पेश आते? चालीस के दशक में गाँधी अरबिंदो घोष से मिलने पांडिचेरी गए थे, अरबिंदो मिलना नहीं चाहते थे, किन्तु गाँधी फिर भी उनसे मिलने चले गए थे. घोष ने मिलने से इंकार कर दिया क्योंकि उनके रास्ते अलग थे. किंतु इससे गाँधी का व्यक्तित्व हमारे सामने आता है. गाँधी तो सावरकर से भी मिलना आवश्यक समझते थे. क्योंकि गाँधी को देश जोड़ना था. एक विशाल सपने को पूरा करने की यात्रा पर सभी को साथ लेकर चलना था. गाँधी से महान हिंदू पिछले दो चार सदियों में शायद ही कोई हुआ होगा.
किंतु क्या यही बात गाँधी नाम के लाभार्थियों को लेकर कही जा सकती है? जितनी नफरत संघ के किसी मूढ़ अंधे स्वयंसेवक में अपने विरोधी को लेकर हो सकती है, उससे जरा भी कम गाँधी के इन लाभार्थियों में नहीं है.
उसमें भी मजे की बात यह है कि ये सभी लोग अपनी-अपनी खाप पंचायत खोल कर बैठे है, जहाँ पर वे ही मुकदमें सुनवाई के लिए हाथ में लिए जाते है, जिसमें संघ को दोषी के कटघरे में खड़ा किया जा सकें. जिन कमियों के लिए संघ दोषी है, क्या उसी कट्टरता के दोषी इस देश के मिशनरीज, ईस्लामी मतों का एकत्रीकरण करनेवाले, आदिवासी समुदाय की राजनीति करनेवाले नहीं है? महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में बराबरी का अधिकार देने के मुद्दे पर इनमें से कौन सबसे अधिक आधुनिक है? दूसरे धर्म के माननेवालों को अपने दायरे में स्थान देने को लेकर तुलनात्मक रूप से कौन अधिकतम उदार है? धर्म और भूमि की संस्कृति पर खड़ा कोई भी संघठन अनिवार्य रूप से कट्टर तो होगा ही, किंतु प्रश्न यह है, कि क्या वह अपने आसपास दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए तैयार है, अथवा नहीं?
जिस दौर में मिडिया का स्वामित्व कुछ गिने चुने अमीरों के हाथ में था, तब यह लाभार्थी होना और गाँधी नाम के प्रमाणपत्र बाँटना काफ़ी फायदे का धंदा था. किन्तु दुर्भाग्य से आज जमाना सोशल मिडिया का है. यहाँ सभी के हिस्से के पाप और पुण्य माउस की एक क्लिक पर मिल जाते हैं.
आज की पीढ़ी को ज्ञात है कि गाँधी का नाम ले लेकर कितने लोगों ने पीढ़ियों की कमाई जमा की है. कितने सेकुलर लोग अपने बच्चों की शादियाँ सेकुलर ढंग से करते हैं. उनके जीवन जीने का पैसा कहाँ से आता है, उनके चुनाव लड़ने का पैसा कहाँ से आता है. उनके बच्चे कहाँ पढ़ते है. दुनिया के सबसे धनाड्य लोगों को भी लजा दें, ऐसी जीवनशैली ये भाग्यशाली खानदान किन लोगों की मेहनत से जी रहे हैं.
लोगों को संघ से शिकायत है, बजरंग दल जैसी उसकी शाखाओं के सार्वजनिक प्रदर्शनों से मुझे भी कई बार बेहद वेदना होती है. किंतु फिर इन लाभार्थी लोगों के चुनकर आने के बाद की हरकतें देखता हूँ, समाज को अपनी गिरफ्त में लेने की पिपासा देखता हूँ, मानवीय गरिमा इनके अय्याश बंगलों के सामने बार बार तार तार होते देखता हूँ, तो मैं अपनी वेदना को शमित कर लेता हूँ.
प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि वह संघ को अधिक से अधिक उदार होने का रास्ता बताये. एक उदार, बाजार समर्थक के लिए, मानवीय गरिमा के समर्थक के लिए, जीवन में कम से कम सरकारी हस्तक्षेप के पैरोकार के लिए,कोई दूसरा रास्ता आपकी दृष्टी में होगा, तो मुझे अवश्य बताइये. मैं खुद को बदलने के लिए हर घड़ी तैयार हूँ.
क्योंकि मेरा विश्वास किसी भी विचार से अधिक जीवन की अधिकाधिक सुदंरता की मंजिल को प्राप्त करने में हैं.
एड. दिनेश शर्मा, पुलगांव

Wednesday, May 6, 2020

"जहां जहां चरण पड़े गौतम के"


"जहां जहां चरण पड़े गौतम के"
वियतनाम के बौद्ध धर्मगुरु तिक् न्यात ह्न्ह की लिखी हुई इस पुस्तक के रूप में मेरे जैसे नगण्य और शुद्र व्यक्ति के जीवन में गौतम बुद्ध का पदार्पण हुआ था. उससे पूर्व मैं ओशो के माध्यम से गौतम बुद्ध के खूबसूरत जीवन की तीर्थयात्रा करके आ ही चुका था. किंतु मुझे भीतर से गौतम बुद्ध के चरणों में झुकाने का काम इसी महान पुस्तक ने किया था.
२० वर्ष पूर्व अपनी कुछ भावनात्मक गलतियों के कारण मैं अपने ही आप से भीतर ही भीतर जूझ रहा था. राह चलते क्रोध में मैं अपने पांव पटकता था, रात को सोते समय अपनी गलतियों के ऊपर शोक करता था और यू लगता था जैसे इसी वेदना के साथ मुझे अपने जीवन की खूबसूरती को खत्म होते देखना पड़ेगा.
ऐसे ही एक दिन वर्धा रेलवे स्टेशन पर किताब की दुकान पर खड़े खड़े गौतम बुद्ध “जहां जहां चरण पड़े गौतम के” के रूप में मुझे मिले. किताब घर आ गयी, किन्तु कई हफ्तों तक मैंने उसे हाथ नहीं लगाया. मैं उसे रोज देखता और किसी और दिन पढ़ने का निश्चय करके वापस रैक में रख देता. फिर एक सुबह मैंने उसे पढ़ना शुरू किया. एक एक पन्ना पलटता गया और मैं इस किताब के माध्यम से सदियों पुराने महान भारत के इस महान पुत्र के एक-एक चरण की तीर्थ यात्रा में तिरोहित होता चला चला. ऐसे लगता मानो उनका प्रिय शिष्य आनंद और कोई नहीं, मैं ही था. गौतम बुद्ध रोज मुझसे बातें करते. मुझे झिड़कते और फिर असीम अनुराग से संभाल लेते.
८७ वर्ष के गौतम बुद्ध के जीवन में पहले के ४० वर्ष ज्यादा मायना नहीं रखते, किंतु बाद के वर्षों में उन्होंने जो कुछ भी हासिल किया, जिस ढंग से उन्होंने हासिल किया और जिस ईमानदारी के साथ उन्होंने उसे दुनिया के सामने प्रस्तुत किया, उसने पूरी दुनिया में उनके धर्म की पताका पहरा दी. उनके पहले के धर्मों की मान्यताओं और उन्हें हासिल अनुभूतिजन्य सत्य में एक बुनियादी अंतर उनके आत्मज्ञान के साथ शुरू हुआ. यह एक ऐसा ज्ञान था, जो मन और बुद्धि की पीड़ा से मनुष्य मात्र को मुक्ति दिलाने वाला था. प्रतिशोध और ईर्ष्या जैसी रुग्णताओं से उपर उठाकर हमें मनुष्य होने की गरिमा प्रदान करने वाला था. यह एक ऐसा धर्म था, जिसने न केवल मनुष्यों के आपसी रिश्तों बल्कि निरीह पशुओं और पेड पौधों के साथ भी हमारे रिश्तों को पूरीतरह बदलकर रख दिया था.
अपने भीतर की मानसिक तकलीफों से मुक्ति पाने के बाद मैंने इस किताब को अपने दोस्तों को उनके जन्मदिन पर भेंट करना शुरू किया. आज तक यह पुस्तक मैं अपने ५० दोस्तों को भेंट कर चुका हूं. आज से कोई १०-१२ वर्ष पूर्व मेरी छोटी बहन विजया को भी मैंने यह पुस्तक भेंट की थी. भेंट करते समय मैंने उसे कहा था कि यह पुस्तक केवल मन की वेदनाओं को ही शमित नहीं करती, बल्कि किसी शारीरिक व्याधि से उपजे दर्द को भी हर लेने की ताकत इसमें है. एक दिन उसने पुस्तक पठन के बीच में ही फोन करके रुंधे गले से मुझे धन्यवाद कहा. हर नए पन्ने के साथ उसकी वेदना शमती चली गयी और मन प्राण पुलकित होते चले गए. खिड़की से बाहर की दुनिया अब पहले जैसी कहाँ रहनेवाली थी, क्योंकि उसे देखने का नजरिया ही बदलने जा रहा था.
आज से ६ साल पहले नागपुर में अपने दोस्त धम्मदीप गजबे के साथ मैंने कुछ व्यापारिक प्रयोग शुरू किये थे. ऐसे ही किसी सुप्रभात में मैंने यह पुस्तक उसे भेंट की. एक रात नागपुर से पुणे जाते समय रात को २.३० बजे उनका फोन आया. उसकी आवाज भर्राई हुई थी. मैं समझ गया कि वह किताब के किस पन्ने पर आकर रुक गया होगा और मुझसे वह चरम वेदना साझा करना चाहता है. वह पृष्ठ था, गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के उस क्षण का, जब पाठक पूरी तरह से स्तब्ध हो जाता है, ध्यान में बैठता है और उस महान आत्मा को पूर्ण आदरभाव के साथ विदाई देता है. किताब का वह पृष्ठ हमें उस दौर में लेकर चला जाता है, जब भारत के इस महान पुत्र ने अपने शानदार जीवन को पूरीतरह से जीने के बाद उसे अलविदा कहा होगा. धम्मदीप ने मुझे उस किताब को भेंट करने के लिए अश्रुपूर्ण अंदाज में शुक्रिया कहा और उसके बाद उस किताब को उसने भी कई अपने कई दोस्तों को भेंट किया.
भारत के महान सांस्कृतिक इतिहास का जो भी अमृत है, वह सारा कुछ आपको गौतम बुद्ध में मिलेगा. भारत का स्त्रैण स्वभाव, भारत का रचनात्मक सौंदर्य, भारत की गहन गंभीरता और भारत का भीतरी गरिमापूर्ण नैतिक उल्लास, आपको बुद्ध के जीवन में मिलेगा. गौतम बुध का जन्म हमें शुद्र महत्वाकांक्षाओं से ऊपर उठाकर जिंदगी की बुनियादी खूबसूरती को समझने की प्रेरणा देता है. हम बुद्धचरित्र की यात्रा पर निकलने के बाद दूसरों के प्रति ज्यादा मित्र भाव से पेश आते हैं, दुनिया को देखने का हमारा नजरिया ज्यादा करुणामय हो जाता है. बुद्ध का धर्म दूसरों से प्रतिशोध लेने या उन्हें प्रभावित करने में नहीं, बल्कि प्रकाशित करने में विश्वास रखता था. और इसीलिए उन्होंने मूक हिंसक जानवरों को भी अपने प्रेम से प्रकाशित कर दिया था. मदमस्त पागल हाथी हो या हिंसक अंगुलिमाल, सभी उनकी गरिमापूर्ण मुस्कुराहट के सामने समर्पित हो सकते थे क्योंकि उनके चरम आकर्षण में एक सुकून था, जिंदगी का एक आश्वासन था.
गौतम बुद्ध ने अपने जीवन में कभी किसी को बदलने की कोशिश नहीं की. किंतु शायद वे भारतीय भूमि पर जन्में अकेले ऐसे पुरुष थे, जिनके भयरहित महान पुरुषार्थ ने समूचे एशिया और उनकी अपनी जन्मभूमि भारत को जिस अंदाज में बदला है, उनके पहले और बाद में शायद ही किसी अन्य ने उस तरह से बदला होगा. और सबसे चकित करनेवाली बात यह थी कि इस बदलाव के लिए उन्हें तलवार का सहारा या दवा और रिश्वत का सहारा नहीं लेना पड़ा. ना उन्हें किसी को धमकाना था, और ना ही खरीदना.
आज बुद्ध पूर्णिमा के इस महान दिन पर मैं भारत के उस महान पुत्र के चरणों में नमन करता हूं और अपने जीवन में उनकी मौजूदगी के लिए मैं ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त करता हूं.
मैं इस बात से गौरवान्वित हूँ कि मैं उस मिट्टी में पैदा हुआ हूं, जहां कभी गौतम बुद्ध के चरण पड़े थे. 
बुद्धम शरणम गच्छामि:
धम्मम शरणम गच्छामि:
संघम शरणम गच्छामि:
दिनेश शर्मा, पुलगांव.

Thursday, August 16, 2018

अटलबिहारी: नेहरु पर्व के बाद का राष्ट्रिय महोत्सव



आज जिस सत्य को कान सुनना नहीं चाहते थे, दृष्टि देखना नहीं चाहती थी, अनुभूति मानना नहीं चाहती थी, वह आकस्मिक क्षण आ ही गया. एक व्यक्ति जो ग्वालियर के एक मध्यमवर्गीय परिवार में गुलाम भारत में १९२४ में जन्मा था, और जिसकी वाणी और प्रखर ओजस्वी शैली ने जिसे आजाद भारत के सबसे लोकप्रिय नेताओं में शुमार करा दिया था, आज अपने चाहनेवालों को अलविदा कहकर चला गया. आज अटलबिहारी नहीं रहे हैं और उनके साथ ऐसा बहुत कुछ नहीं रहा, जिसकी आज सबसे ज्यादा जरूरत थी.
उसका जाना गरिमा, लाज शर्म, ईमानदारी, प्रतिस्पर्धी के प्रति सम्मान और असहमति को भी जगह देनेवाली भारतीय संस्कृति के विराट अरण्य में के एक और विशाल छायादार पेड़ के टूट जाने जैसा है. आज जब शुद्रता, कदाचार, और असहनशीलता हमारे देश की राजनीति में पक्ष और विपक्ष दोनों का राष्ट्रिय स्वभाव बन चुका हो, उनका जाना किसी शास्त्रीय संगीत की महफिल के अचानक उठ जाने जैसा है.
वे २७ मई १९६४ को जवाहरलाल नेहरु के निधन के बाद के चार दशकों में भारत के राजनैतिक आकाश पर अपने निजी आकर्षण और उर्जा के कारण छाये रहे दो सबसे बड़े हमारे जननायकों में एक थे, मेरी दृष्टी में दूसरी जननायक निसंदेह श्रीमती इंदिरा गाँधी थी. जहाँ इंदिराजी सत्ता पक्ष का प्रतिनिधित्व करती रही, वहीँ अटलबिहारी विरोधी पक्ष को वह गरिमापूर्ण आकर्षण मुहैया कराते रहें. अटलजी की पार्टी को उन दिनों में भले ही वोट नहीं मिले हो, किन्तु हमारा बचपन और किशोरपन उनके भाषण सुनने के लिए सैकडों किलोमीटर की यात्रायें करने से भरा रहा. भारतीय राजनीति में शायद अटलजी एकमात्र ऐसे नेता थे, जिनका भाषण सुनने के लिए लोग जाति, धर्म और भाषा की दिवारें लाँघ कर जाते थे. वर्धा हो, नागपुर हो या अकोला हो, हम रात्रि की ट्रेन से मुफ्त में यात्रायें करते,दूसरे दिन उनका भाषण सुनते और फिर हफ्तों उसकी चर्चा करतें.
उनके शब्द ओजस्वी होते हुए थी कटुतापूर्ण या विरोधियों के प्रति अपमानजनक नहीं थे. उनकी शैली काव्यमय थी और शब्द तो मानों उनके मित्र और सखा ही थे, जो जब जरूरत हो, उनके साथ हो लेते. उन्हें सुनना सदा हमारी फंतेसी का एक अविभाज्य हिस्सा रहा. जितना सम्राट अकबर मुस्लिम था, उतने ही वे हिंदू थे. मुझे आज भी लगता है कि पिछली सदियों में जिन लोगों ने वास्तविक अर्थो में हिंदुस्थान को जाना समझा है, उनमें सम्राट अकबर, राज कपूर और अटलबिहारी निसंदेह अग्रणी रहेंगे. इसलिए उनमें वह सारा कुछ श्रेष्ट दिखाई देता है, जो हमें हमारे भारतीय होने का अभिमान देता है. उनमें विशिष्ट किस्म की भारतीय गेयता थी, अल्हड़ता थी. उनका बिंदासपन राजनीति की आपाधापी के बीच भी उनके चाहनेवालों को एक सुकून पहुंचाता था. भाषण के दौरान उनके ठहराव (पॉज) सुननेवालों को पहले तो आकुल और पश्चात चमत्कृत कर देते थे.
हिंदू धर्म अपने मूल अर्थ में वैसे भी कभी किसी के विरोध में नहीं रहा है. इसलिए हिंदुओं ने कभी किसी को मिटाना नहीं चाहा, बदलना नहीं चाहा. जीवन की विविधता का सम्मान इसकी मूल मान्यताओं में से एक रहा है. यह एक मस्ती से भरा, गीतों से भरा, तीर्थो की यात्रा करता कारवां है, जो आपको अपने ही अविष्कार का अवसर प्रदान करता है. अटलजी में इसका प्रतिबिंब अपनी पूरी प्रखरता से दिखाई देता है. वे राजनीति के जैसे रुक्ष प्रदेश में होते हुए थी अपनी ही मस्ती में चलते रहें. गाते रहें, और दोस्तों, दुश्मनों सभी को अपने अमृतपन का प्रसाद बांटते रहें. वे हिन्दुवादी राजनीति के पुरोधा रहें किन्तु मंदिर में फेरे लगाता, पूजा करता उनका कोई फोटो हमारी स्मृतियों में नहीं है. कई अर्थो में वे बेहद आधुनिक व्यक्ति रहें, जिसने सदा अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित किया था. भीतर से वे स्वयं एक बेहद रोमांटिक प्रेमी ही रहें हैं. वे हिंदी भाषा के सबसे चहेते वक्ता रहें किन्तु दक्षिण में भी लोकप्रिय रहें. उनका पहनावा सदा पंरपरागत भारतीय रहा, किन्तु देश की तरुणाई से उनकी सदा नाल जुडी रही.
भारतीय विविधता पिछले दशकों में जितनी उनमें अभिव्यक्त हुयी, उतनी शायद ही किसी अन्य नेता में हुयी होगी. इसीलिए पोखरण का अणु विस्फोट करते हुए उनके एक ओर ईसाई जार्ज फर्नांडीस, दूसरी ओर मुस्लिम अब्दुल कलाम दिखाई देते है, और उस विस्फोट का गोपनीय कोड था, “लाफिंग बुद्धा” (अर्थात हंसते हुए गौतम बुद्ध). देश की शक्ति और सामर्थ्य का उदघोष करने के उस क्षण में हमारी राष्ट्रिय विविधता को इससे बड़ी सलामी और क्या हो सकती थी!
आज देश की हिन्दुवादी हो या धर्मनिरपेक्ष राजनीति, दोनों ही पटरी से पूरी तरह उतर चुकी है. आज जहाँ हिन्दुवादी राजनीति रोज नए दुश्मन तलाश रही हैं,वहीं धर्मनिरपेक्ष राजनीति राष्ट्र की मुख्य धारा को ही झुटलाना चाहती है. अल्पसंख्यकवाद को धर्मनिरपेक्षता का जामा पहनाने से एकाध चुनाव भले ही जीत लिया जाए, किन्तु इससे बहुसंख्यकों को एक होने की प्रेरणा मिलती है, जो अंत में अल्पसंख्यकों को ही महँगी पड़ती है. आज हम कभी नहीं थे, इतने प्रतिक्रिया वादी हो चुके है. सामनेवालों की तुच्छता का मुकाबिला करने के लिए हमने अपने भीतर की श्रेष्टता को दबा कर अपने भीतर की शुद्रता को खुली छूट दे दी है. आज देश में हर कोई अपने श्रेष्ठतम को परदे में ढंकने और अपने शोषित होने, पिटे जाने, कुचले जाने को ही अपनी योग्यता बताने में गर्व कर रहा है. ऐसा देश और भले ही किसी का हो, चाणक्य, शिवाजी, विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ, अरबिंद घोष, लोकमान्य तिलक और गाँधी का तो निसंदेह नहीं हो सकता है. ऐसा देश दोषारोपण तो कर सकता है, निर्माण नहीं कर सकता है.
ऐसे माहौल में अटल जी अवश्य याद आयेंगे. वे हमारी स्मृतियों को सदा अपनी सादगी, मुस्कराहट और कविताओं के साथ तरोताजा बनाते रहेंगे.
दिनेश शर्मा

Wednesday, October 18, 2017

हिंदु जातिप्रथा और ब्राह्मणों की निंदा के पीछे का वैश्विक एजेंडा


पश्चिमी देशों के आम नागरिक शायद ही भारत के बारे में कुछ जानते हो. हाँ, एक चीज से वे सारे अवगत है, “कि भारत में एक अमानवीयजाति प्रथा है जोकि हिंदु धर्म का सबसे महत्वपूर्ण आयाम है”. अधिकांश यह भी जानते है कि ब्राह्मणनामक एक उच्चवर्णीय जाति है, जोकि उस देश की निम्नवर्णीय समझी जानेवाली जातियों का शोषण करती है, और इनमें भी अछूतों के हालात तो बेहद बदतर है. 


मुझे इस बात को अपने प्राथमिक विद्यालय में ही सिखाया जा चुका था, भले ही कुछ ही वर्षों पूर्व हो चुके नाजी जर्मनी के हत्यारे गैस चैम्बर्स, उपनिवेशवाद और दासत्व-प्रथा के अत्याचारों के बारे मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं था. १९६० के दशक के आरंभिक वर्षों में भारतीय जातिप्रथा और उसके ब्राह्मण खलनायकमेरे पश्चिमी बवेरियन स्कूल्स के पाठयक्रम का अभिन्न हिस्सा थे और आज भी हालात वही है. कुछ समय पूर्व मैंने ऋषिकेश में तीन युवा जर्मन नागरिकों से पूछा कि वे हिंदुधर्म को किस चीज को जोड़कर देखते हैं, उनका तत्काल उत्तर था- जातिप्रथा”. निश्चित ही, वे यह भी सुन चुके थे कि यह प्रथा बेहद आमानवीय है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि सारी दुनिया के स्कूली बच्चों को अमानवीय जातिप्रथाके बारे में पढ़ाया जाता है. 
क्या इसके पीछे कोई कारण, किसी एजेंडे की संभावना है
इससे कोई इंकार नहीं करेगा कि जातिप्रथा आज भी मौजूद है और आज भी अछूत जातियाँ अस्तित्व में है. और ऐसा केवल भारत में ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया में मौजूद है. आश्चर्यजनक बात है, ‘क्लासको पोर्तुगीज में जाति अर्थात कास्टकहा जाता है. वास्तव में तो यह भारतीय संज्ञा भी नहीं है.

प्राचीन भारतीय वेद चार वर्णों का जिक्र करते है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र, जोकि एक सामाजिक शरीर की रचना करते है, वैसे ही जैसे कि मस्तक, भुजा, जांघे और पाँव एक मानवीय शरीर की रचना करते है. वैसे तो यह स्वयं में ही एक बेहद खूबसूरत व्याख्या होती जो इशारा करती है कि मानव शरीर के सभी अंग अपनेआप में महत्वपूर्ण है. हाँ, यह सही है कि मस्तक को सदैव ज्यादा आदर दिया जायेगा, किन्तु क्या आप अपने पांवों की उपेक्षा करेंगें? हर व्यक्ति प्रतिभाशाली कार्य के लिए ही तो नहीं जन्मता है. कोई भी समाज किसानों, व्यापारियों और श्रमिकों के बिना कैसे खड़ा होता? सभी की अपनी-अपनी भूमिका है. और भविष्य में इस भूमिका के बदले जाने की भी पूरी संभावना होती है. 
वर्णभी अपने मूल रूप में आनुवंशिक नहीं थे. वे किसी व्यक्ति के सबसे प्रमुख चारित्रिक गुण और उसके व्यवसाय पर निर्भर थे. ब्राह्मणों का मूल कर्म था- वेदों का एकदम परिशुद्ध अंदाज में स्मरण करके उन्हें सुरक्षित रखना और आगामी पीढ़ियों को सौंपना. इसलिए उनमें सत्व गुण की प्रधानता अनिर्वाय मानी गयी और उन्हें पवित्रता का जतन करने के लिए बाकी जातियों की तुलना में अधिक कष्टपूर्ण नियमों से बंधे रहना होता था.

ब्राह्मण वेदों की पवित्रता के रक्षक और पालक थे. अतः यह समझनेलायक बात है कि वे उन लोगों को नहीं छुएंगें जो नालियाँ साफ करते हो या मृत जानवरों का चमड़ा निकालते हो, हालांकि समाज के लिए ऐसे काम करनेवाले लोग भी आवश्यक है. पश्चिम में भी लोग कहाँ उनसे हाथ मिलाना पसंद करते हैं, किन्तु क्या वहां कोई इसे मुद्दा बनाता है?

अपने सत्व गुणों के कारण ब्राह्मणों द्वारा समाज के दूसरे समूहों के प्रति अपशब्दों के प्रयोग किये जाने की भी न्यूनतम संभावना थी. आमतौर पर हर समाज में एक समूह होता है जो स्वयं को सामाजिक रूप से दूसरों से ऊपर और दूसरों को अपने से कमतर आँकता है. यह ग्रंथी सभी समकालीन समाजों में मौजूद रहती है. यह भी सत्य है कि कालान्तर में भारत में दुर्भाग्य से चार वर्ण जन्म की आनुवंशिकता से तय किये जाने लगे, ना कि कर्म की. आज ऐसे कई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र मिल जाएंगें जो शायद ही अपने वर्ण धर्म का पालन करते हों, अतः उन्हें अपने आपको अपने जन्म के वर्ण से संबंधित नहीं मानना चाहिए.

किन्तु क्या कारण है कि जहाँ भारत में समाज की इस संरचना को निरंतर लताड़ा जाता है, वहीँ पश्चिम में वहां के उच्चवर्णीय, राजसी कुलों को कोई दोषी नहीं ठहराता कि वे अपने श्रमिकों के साथ उठते बैठते नहीं है या उनके आस-पड़ौस में रहने को तैयार नहीं है
मुझे एक बूढ़े भारतीय ने बताया था कि कर्नाटक के मडीकेरी गांव और सारे देश में अंग्रेज अपने क्लबों में केवल गोरे लोगों को ही प्रवेश की अनुमति देते थे? यदि मेरी याददाश्त ठीक है, तो उसने कहा था कि क्लब के प्रवेश-द्वार के सूचना फलक पर ही लिखा होता था- कुत्तों और भारतीयों का प्रवेश निषिद्ध है”. इस बात से क्यों कोई क्षुब्ध नहीं है?
क्यों कोई भी इस बात से क्षुब्ध नहीं है कि ब्रिटिश उपनिवेशवादी कृषिनीति ने ढाई करोड़ भारतीयों को भूखों रखकर मौत का निवाला बनने को मजबूर कर दिया था. ये ढाई करोड़ भारतीय, स्त्री, पुरुष और बच्चे, शनै: शनै: मौत की और रेंग रहे थे क्योंकि उनके पास, एक ऐसे देश में जो अंग्रेज आने से पूर्व दुनिया के सबसे अमीर देशों में शुमार था, खाने के लिए कुछ भी नहीं था? इंटरनेट पर उस दौर के तिल-तिल मरते, केवल चमड़ी और हड्डियों को दर्शाते, बमुश्किल जिंदा भारतीयों के भयावह चित्र आज भी उपलब्ध है.

क्यों कोई भी इस बात से प्रक्षुब्ध नहीं होता है कि अंग्रेजो ने दासप्रथा समाप्त होने के बाद भी अपनी बंद दमघोंटू नावों में ठूंस-ठूंस कर भारत से दीन-हीन श्रमिकों को दुनिया के कोने-कोने में भेजा था, जिनमें से अधिकांश तो यात्रा के बीच में ही मौत का निवाला बन गए और जो बच गए थे, वे गन्ने के खेतों में होनेवाले अंतहीन अत्याचारों के शिकार बन गए?

क्यों कोई हिंदुओ और विशेषकर ब्राह्मणों की उस बदहाली का जिक्र नहीं करता जो मुस्लिम आक्रमणों के कारण हुयी थी? कितने क्रूरतापूर्ण थे वे आक्रमण? अनगिनत हिंदू मार डाले गए और कितने ही गुलाम बना दिए गए. कितनी ही हिंदु नारियों ने मुस्लिम आक्रांताओं के हाथों पड़ने की तुलना में सामूहिक जौहर करके अपने प्राणों की आहुति देने का चुनाव किया था.
इसी वर्तमान में आयसिस(ISIS) के कारण हम उन घटनाओं का अनुमान लगा सकते है, जो सदियों पहले घटित हुयी होगी, किंतु बावजूद इसके वामपंथी विचारक और आदरणीयब्रिटिश सांसद इसे लेकर किंचित भी चिंतित दिखाई नहीं देते. हाँ, वे चिंतित अवश्य है भारत की घोरतम अमानवीय जातिप्रथाके बारे में.

हम इसे आसानी से समझ सकते है कि औपनिवेशिक प्रशासन ने १८७१ के पश्चात अपनी जनगणना में वर्णों की पुरानी लचीली अवस्था को सख्त बनाकर जातियों के बीच के आपसी सामंजस्य को नष्ट करने का प्रयास किया था. आज उन्ही के लोकतांत्रिक उत्तराधिकारी, भारत में जिनका कोई राजनैतिक आधार नहीं है, केवल जोड़तोड़ में प्रवीण चालाक मिडिया और अपने ही देश के संसदीय कानूनों के बल पर इस सामंजस्य को नष्ट करने पर तुले हुए है.

मेरा तर्क कहता है: जो कुछ ब्राह्मणों ने दूसरों से स्वयं को अलग रखकर या मान लो कि दूसरों का तिरस्कार करके किया था, वह ईसाई उपनिवेशवादीयों और मुस्लिम आक्रांताओं ने जो कुछ किया था, उसके सामने तो रत्ती भर भी नहीं है.

फिर क्यों जातिप्रथा के कथित अत्याचारों को इतना बढ़ाचढ़ा कर दिखाया जाता है? इसका स्पष्ट कारण तो सिर्फ उन लोगों से ध्यान बंटाना हो सकता है जिन्हें वास्तव में भारत में अतीत में किये और आज भी जारी अपनी करतूतों पर अपराधबोध महसूस होना चाहिए. निश्चित ही ये लोग ब्राह्मण तो नहीं है. आज भी कई ब्राह्मण बेहद गरीब होने के बावजूद आरक्षण व्यवस्था के कारण धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों को मिलनेवाले फायदों से वंचित है.

जातिप्रथा और ब्राह्मणों की दुनियाभर में जारी निंदा के लिए केवल यही कारण पर्याप्त नहीं है. उनका दूसरा प्रमुख एजेंडा है- ब्राह्मणों को शर्मिंदा करना, उन्हें उनके पूर्वजों के कर्मो के लिए अपराधबोध से भरना और उन्हें वेदों की शिक्षा ग्रहण करने और उसे दूसरों को प्रदान करने के अपने ही धर्म के पालन के प्रति संकोची बनाना. उनका उद्देश्य है- वैदिक ज्ञान को भारत में से ही लुप्त कर देना, क्योंकि यह ईसाईयत और इस्लाम के लिए तगड़ी चुनौती पेश करता है. यह उन धर्मों के कथित उद्घाटित सत्यों” (Revelaed truths) को बड़ी आसानी से चुनौती देता दिखाई देता है. वैदिक ज्ञान तर्कपूर्ण है और इसीकारण यह ईसाईयत और इस्लाम के वैश्विक विस्तार के रास्ते की सबसे बड़ी रूकावट है.
दुर्भाग्य से वैदिक ग्रंथों का बड़ा हिस्सा पहले ही लुप्त हो चुका है. कांचीपुरम के भूतपूर्व शंकराचार्य श्री चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती अपनी पुस्तक द वेदाजमें कहते है कि वेदव्यास द्वारा ५००० वर्ष पूर्व चार वेदों में विभाजित कुल ११८० शकों में से आज केवल आठ का ही उपयोग होता हैं. (मैं सोचती हूँ- क्या इंग्लैंड, जर्मनी और अन्य देशों में खोजबीन की गई तो इस संपदा में से कुछ की फिर से खोज हो सकती है?)
आज वक्त आ चुका है कि इस ब्राह्मण निंदा कार्यक्रम को विराम दिया जाये और भारतीय जातिप्रथा को मानवता के ऊपर घटित हुआ सबसे भीषण संकट दर्शाना बंद किया जाये. यह पूरीतरह बनावटी लगता है, विशेषकर तब जब आयसीस (ISIS) का उल्लेख बिना किसी भावुकता का रंग भरे या निंदा करते हुए केवल तथ्य दर्शाकर कर दिया जाता है. जैसे कि- आयसीस (ISIS) ने १९ यजीदी महिलाओं को लोहे के पिंजरे में जला कर इसलिए मार डाला क्योंकि उन्होंने आयसीस सैनिकों के साथ सेक्स करने से इंकार कर दिया था.
कुछ वर्षों पूर्व मैंने एक बूढ़े ब्राह्मण दंपत्ति को दक्षिण भारत के एक मंदिर में देखा. उनमें बेहद गरिमा थी, किन्तु वे काफ़ी कमजोर और कृशकाय थे. जब प्रसाद का वितरण हो रहा था- वे पंक्ति में मेरे सामने खड़े थे. बाद में वे उस पंक्ति में फिर से खड़े हो गए. इस बात की पूरी संभावना है कि ऐसा उन्होंने अपनी गरीबी के कारण किया था.
ब्राह्मणों को अपने पूर्वजों के प्रति अपराधबोध रखने की कोई आवश्यकता नहीं है. उन्हें तो उनपर गर्व होना चाहिए, क्योंकि केवल उनके योगदान के कारण आज भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जिसने अपने बहुमूल्य प्राचीन विवेक को, अशंतः ही क्यों ना हो, बचा कर रखा है.
हाँ उन दूसरों ने अवश्यही अपराधबोध रखना चाहिए, किन्तु वे अन्य तो बेशर्म है, वे ऐसा नहीं करेंगें. वे तो इसके बजाय वातावरण को हिंदुओं के प्रति तर्कहीन घृणा और ब्राह्मणविरोध से दूषित करते रहेंगें.


अनुवाद- एड. दिनेश शर्मा

मारिआ विर्थ एक जर्मन नागरिक है और हैम्बर्ग विश्वविद्यालय से उन्होंने मनोविज्ञान का अध्ययन किया है. वे पिछले चार दशकों से भारत में रह रही हैं. हिंदु तत्वज्ञान पर उनके लेख निम्न लिंक पर पढ़े जा सकते हैं.





Saturday, May 13, 2017

माँ

माँ

आज से कुछ वर्षों पहले दुनिया में एक प्रतियोगिता हुयी. प्रतियोगिता का विषय था उस शब्द की खोज करना, जो दुनिया की समस्त भाषाओं में सबसे लोकप्रिय शब्द हो. जब सारी दुनिया के भाषाविद् बैठे और उन्होंने दुनिया के उसे सबसे लोकप्रिय शब्द के बारे में जाना तो वे भी दंग रह गए- क्योंकि, वह शब्द था माँ.
दुनिया की कोई भी भाषा हो- लेकिन हर उस भाषा में माँ से महान और लोकप्रिय कोई शब्द नहीं पाया गया. 

बच्चा जब अपने तुतलाते बोलों से बोलना सीखता है, तो उसके होठों से जो पहला शब्द निकलता है, वह होता है, म अर्थात माँ और फिर उसके बाद वह बोलता है, मम अर्थात पानी.

वही हमारी पहली श्रोता और वही हमारी पहली वक्ता है. वह हमारे जीवन की पहली ध्वनि, पहला स्वाद, प्रथम स्पर्श और पहला प्रेम है. वह हमारी अभिव्यक्ति और अस्तित्व की यात्रा का पहला और सबसे महान कदम है.
बच्चा केवल गंध से अपनी माँ को पहचान सकता है. इसलिए जैसे ही वह कहीं इधर उधर जाती है, वह बेचैन होकर रोने लग जाता है क्योंकि उसके नाक की ग्रंथिया उसे सूचना दे देती है कि कुछ तो भी यहाँ से गायब है.
उसका होना मानो हमारी जिंदगी का सबसे महानतम आश्वासन है.
हम महाराष्ट्र वाले अपने संतो को भी माउली कहकर बुलाते है क्योंकि अब इससे ज्यादा अपनापन और मान देना भी संभव नहीं हैं. किसी की महानता और करुणा को माउली बोल दिया तो मानो बात पूरी हो गयी. अब और आगे जाना मानो संभव ही नहीं है.
१९६६ में प्रदर्शित हुयी हिंदी फिल्म दादी माँ में महेंद्र कपूर ने माँ की तुलना ईश्वर से करते हुए गाया था:
उसको नहीं देखा हमने कभी पर इसकी जरूरत क्या होगी.

ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी.
इंसान तो क्या देवता भी आँचल में पले तेरे
है स्वर्ग इसी दुनिया में कदमों के तले तेरे
ममता ही लुटाए जिसके नयन ऐसी कोई मूरत क्या होगी.
ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी.

उर्दू के किसी शायर ने माँ की दुआओं पर कहा है: 

ना जाने कौन मेरे हक में दुआ पढ़ता है..
मैं डूबता भी हूँ तो समन्दर उछाल देता है....

सदियों से अपने-अपने हिस्से के संघर्षो से जूझ रही मानवता ने माँ के आँचल में ही पनाह ली है. घर के शिवाले में बैठी माँ ने हमारे संघर्ष को हर रोज नयी प्रेरणा दी है. वह हमारी अनगिनत यात्राओं का प्रस्थान बिंदु है. और वही हमारी जिंदगी का चरम विश्राम रही है. उसकी रस-भरी भय-मुक्त छाया से महान आश्रम और क्या हो सकता है?
इसलिए ईश्वर भी जब कभी अपनी निर्मिति से थक हार कर चैन की साँस लेना चाहता होगा तो वह भी अपनी माँ की ही पनाह में जाता होगा.
दुनिया के कई आदिवासी कबीले बच्चे के जन्म के समय उसकी माँ से जुडी जो नाल होती है, उसे काटने के बाद धूप में सुखा कर संभालकर रखते है. भविष्य में उसे कोई भी घातक बीमारी हो तथा और कोई दवा असर नहीं कर रही हो तो वे उस नाल को घिसकर उसका रस उस व्यक्ति को पिला देते है. वह नाल उसके लिए जीवन अमृत का काम करती है. उस नाल का असर, उसके शरीर के विषाक्त तत्वों को बाहर निकाल फेंकता है.
यही कुछ हमारे चरित्र दोष के साथ भी होता है. आपने कोई भी अपराध कर लिया हो, कोई भी ऐसी बात जो आप किसी और के सामने स्वीकार ना कर सको, जो आपको भीतर ही भीतर निचोड़ रही हो, जो आपके दिन का चैन और रातों की नींद को उड़ा दे, बस एक बात कीजिये, अपनी माँ के सामने उसे स्वीकार ले. एक क्षण मात्र में आप अपने ही भीतर के अपराध बोध से मुक्त होकर समाज के सामने फिर से खड़ा होने का साहस पैदा कर सकते है.
उर्दू के लोकप्रिय शायर मुनव्वर राणा कहते है 

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है

वे आगे कहते है 

हादसों की गर्द से ख़ुद को बचाने के लिए
माँ ! हम अपने साथ बस तेरी दुआ ले जायेंगे

आज की दुनिया इसलिए परेशान नहीं है कि उसके पास पैसा, प्रतिष्ठा या पद-नाम नहीं हैं. सामान्य से सामान्य आदमी के लिए इतना पैसा, इतनी प्रसिद्धि के साधन और इतने पद-नाम विश्व के समूचे इतिहास में कभी भी उपलब्ध नहीं थे, जितने आज है. हमारी समस्या है कि हम माँ, मातृभूमि और मातृभाषा से दूर होते जा रहे हैं. हम जितना दूर हो रहे हैं उतना निराशा का अंधकार हमें अपने साये में दबोचने को आतुर हुआ जा रहा है.
यही संघर्ष पर्वतराज कैलाश के आँगन में मानवता के उषाकाल में भी हुआ था. गणेश और कार्तिकेय में कौन महान है, जब इसका फैसला लेने का वक्त आया तो सारी दुनिया का चक्कर लगानेवाले कार्तिकेय को पराजित होना पड़ा और केवल अपनी माँ और पिता की परिक्रमा लगानेवाले गणेश जीत गए.
उसके बाद आज तक कोई कार्तिकेय नहीं जीत पाया है.
वे सारे लोग जो विश्वविजेता सिंकदर बनने की यात्रा पर निकले थे, कहीं गुमशुदा की तरह रेगिस्तानो में समाप्त हो गए. और जो गाँधी, तिलक, विवेकानंद और रवीन्द्रनाथ मातृभूमि और मातृसंस्कृति की रक्षा के लिए उठे, वे महात्मा, लोकमान्य और महाकवि कहलाये.
अपनी माँ जीजाऊ के कहने पर महाराष्ट्र के महान छत्रपति ने मानो भारत का सारा इतिहास ही बदल कर रख दिया था. आज महाराष्ट्र, मराठी और मराठा इतिहास माँ-बेटे की इस महान जोड़ी का जितना कर्जदार है, उतना किसी और का नहीं है.
सलीम जावेद की पटकथा पर बनी फिल्म दीवार में फिल्म में बिगड़े हुए बेटे का रोल कर रहे अमिताभ अपने पुलिस वाले भाई शशी कपूर से पूछते है: 'आज मेरे पास बंगला है, गाड़ी है, बैंक बॅलेन्स है, तुम्हारे पास क्या है?'
जब शशी कपूर जवाब देते है कि मेरे पास माँ है" तो सारा सिनेमा हाल तालियों से गूंज उठता था.
विज्ञान और समृद्धि के शिखर पर जाते हुए आज यही प्रश्न हमारे दौर की मानवता के सामने है.
क्या हमारे पास माँ है?
जिस किसी के पास इस यक्ष प्रश्न का उत्तर है, वह बचा लिया गया समझो.
और जिसने अपनी माँ और उसका आशीर्वाद गँवा दिया, समझो कि उससे विपन्न और दरिद्र इस धरा पर और कोई नहीं है.
दिनेश शर्मा


Tuesday, March 22, 2016

जेनेटिक क्रांति: किसान विरोधी नीति की ओर मोदी सरकार

जेनेटिक क्रांति: किसान विरोधी नीति की ओर मोदी सरकार

वैज्ञानिक अविष्कारों के क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप किस हद तक समाज विरोधी हो सकता है, इसका एक विदारक उदाहरण मोदी सरकार की जेनेटिक बीज संबंधी नीतियों को लेकर सामने आ रहा है.  विश्व की जानी मानी जेनेटिक कंपनी, मोनसेंटो  को लेकर दिया गया कृषि राज्य मंत्री का बयान ना केवल उनकी आत्महंता राजनीती का परिचय देता है, बल्कि इस देश के किसानों के लिये आनेवाला भविष्य केवल संकटों से भरा होगा, इसकी ओर भी इशारा करता है.

पिछले बीस से ज्यादा वर्षों से संघ परिवार से जुड़े समस्त संघठन जेनेटिक बीजों के क्षेत्र में समूची दुनिया में हुयी बेमिसाल क्रांति को नकारते रहे हैं. वे ऋषि खेती, स्वदेशी खेती और ओर्गेनिक खेती के नाम पर बेहद असरहीन प्रयोग इधर उधर करते रहते है, और किसान उनकी उछल कूद उपेक्षा से देखते रहते है.  संघ परिवार, वामपंथियों और कथित पर्यावरणवादियों के दबाव के चलते देश में पिछले एक दशक से जेनेटिक बीजों के जमीनी परीक्षणों पर पूरी पाबंदी लगी हुयी है. देश के कृषि विश्वविद्यालयों की सैकड़ों लेबोरेटरीज में कार्यरत युवा कृषि-वैज्ञानिक हताशा और निराशा के दलदल में डूबते जा रहे हैं. देश का सकल कृषि उत्पादन गैर-जेनेटिक क्षेत्र में ना केवल थम गया है, बल्कि नकारात्मक झुकाव दर्शा रहा है. छोटी जोत, मंहगी मजदूरी और महँगे कर्ज के कारण हर उगते दिन के साथ खेती निःसंदिग्ध रूप से केवल और केवल घाटे का सौदा बनती जा रही है. किसान सैकड़ों नहीं, हजारों की तादाद में आत्महत्या करके अपने गरिमाहीन दरिद्र जीवन से मुक्ति का रास्ता तलाश रहे है. कृषि क्षेत्र में नयी पूंजी, नयी प्रतिभा और नूतन प्रेरणा के निवेश की कोई संभावना कहीं दूर दूर तक दिखाई नहीं दे रही है.

ऐसे में एक आम विवेक और अर्थशास्त्र की समझदारी रखनेवाला व्यक्ति मोदी सरकार से क्या उम्मीद रखता? यही कि उन्होंने सारी दुनिया से बेहतरीन से बेहतरीन बीज भारत के किसानों को मुहैया कराकर उनकी कृषि को हरसंभव तरीके से लाभ का कारोबार बनाना चाहिये और नए नए वैज्ञानिक प्रयासों को समर्थन देना चाहिये जिससे कि देश में कृषि की प्रति व्यक्ति और प्रति हेक्टर उत्पादकता बढ़ें और उसका खर्च कम हो. कोई साधारण मगज वाला व्यक्ति भी इससे सहमत होगा कि तकनीक से मानवीय श्रम की उत्पादकता बढ़ती है और गरिमापूर्ण जीवन की संभावना पहले से ज्यादा सुरक्षित होती है. दुनिया में आज भी वही देश और वही समाज विपन्न है जहाँ नयी तकनीक की पहुंच नहीं है और हर रोज पुरानी आदिम अस्मिताओं के नारे लग रहे हैं.  जहाँ आज भी पुरानी ग्रामीण जीवन शैली सदियों से बिना किसी बदलाव के जारी है, वहाँ आदमी की औसत उम्र विकसित देशों की तुलना में आधी है, महिलायें अपनी गुलामी में ही सुरक्षा की तलाश करने को मजबूर है और दवा से ज्यादा पैसा समाज हथियारों पर खर्च कर रहे हैं. उन तमाम देशों में आदमी की जिंदगी की कीमत किसी पालतू जानवर से किंचित भी ज्यादा नहीं है. 

सरकार का कहना है कि मोनसेंटो ज्यादा फायदा कमा रही है, अतः उसकी रायल्टी कम करना चाहिये. क्या उसके इस एकाधिकार को बढ़ावा देने में स्वयं स्वदेशी और वामपंथी लॉबी का हाथ नहीं है? वे यदि तकनीक में निवेश को बढ़ाने का आंदोलन करते, जेनेटिक बीजों के जमीनी परीक्षणों का विरोध नहीं करते और देश के विश्वविद्यालयों को अपना वैज्ञनिक काम करने देते, तो मोनसेंटो की क्या मजाल थी कि वह ज्यादा रायल्टी माँगती. अभी तक देश में ही उसके कितने ही प्रतिद्वंदी विकसित हो जाते और बाजार की ताकत मोनसेंटो को अपनी कीमतें गिराने को मजबूर कर देती. किंतु केवल कथित पर्यावरणवादियों, वामपंथियों और संघ परिवार के लोगों की मूर्खता के चलते देश में ऐसा नहीं हो सका. आज मोनसेंटो के एकाधिकार के लिये यदि कोई दोषी है तो वे ही लोग है, जो स्वदेशी के नाम पर हर विदेशी ज्ञान-विज्ञान का विरोध करते रहे हैं. आज संघ परिवार को जेनेटिक बीजों से कोई शिकायत नहीं है बल्कि अब उसकी शिकायत है कि यह तकनीक महंगी क्यों हैं? क्या संघ परिवार और वामपंथी आज तक के अपने इस विज्ञान विरोधी प्रचार के लिये देश के नौजवान कृषि वैज्ञानिकों की खर्च हो चुकी उस पीढ़ी से माफ़ी मांगेगें जिनके जमीनी प्रयोग केवल उनके पूर्वाग्रहों के चलते रोक दिए गए थे? क्या वे उन आत्महत्या ग्रस्त किसान परिवारों से माफ़ी मांगेंगें, जिनके परिवारों को अपनी जरूरत की तकनीक का प्रयोग करने की बुनियादी आजादी से भी उन्होंने वंचित करके रखा था? क्या किसी बीमार को दवा देने में देरी करनेवाला सुधारक उसकी असामयिक मृत्यु का दोषी और अपराधी नहीं माना जाना चाहिये?

जब देश में किसी तकनीक के परीक्षण पर ही बंदी हो तो देशी तकनीक का भी विकास कैसे होगा? आज दुर्भाग्य से देश में कहीं कोई देशी जेनेटिक तकनीक मौजूद नहीं है. हमारी तमाम प्रयोगशालाएं लगभग बंद होने के कगार पर है. कृषि विज्ञान नाम की शाखा ही मानो लुप्त होने के कगार पर है. मोनसेंटो का बीज बिकता है क्योंकि खेती करनेवाला मामूली किसान किसी भी पढे लिखे नेता से ज्यादा अच्छी तरह जानता है कि उसके लिये क्या बेहतर है. वह यदि कथित सुधारकों को जैसी चाहिये वैसी खेती नहीं कर रहा है तो इसका सीधा सरल कारण यह है कि ऐसी खेती निबंध और भाषणों में तो चल सकती है किंतु उसके खेत में वह लाभदायक नहीं है. किसी दूसरे तर्क के लिये यहाँ कोई जगह ही नहीं है.

आज मोदी सरकार उसी किसान के उस शेष बचे अधिकार को भी कुचलने जा रही है. मोनसेंटो को आप बाहर का रास्ता बता देंगे और आपकी देशी जेनेटिक तकनीक बाजार में मौजूद ही नहीं है. जब तक आपकी वह तकनीक आयेगी, दुनिया विज्ञान के किसी और नए चरण तक पहुंच चुकी होगी. संघ और वामपंथ फिर उस वैज्ञानिक अविष्कार का विरोध करेंगें और फिर एक दो पीढ़ियां उनकी कूपमंडूकता में तबाह हो जायेगी. यही कुछ संघठनों ने १९८० के दशक में भारत में रंगीन टीवी और कंप्यूटर के आगमन का विरोध करके किया था, इसी पिछड़ेपन का परिचय हमने ९० के दशक की आर्थिक पुनर्रचना का विरोध करके दिया था. किंतु दुर्भाग्य से देश टीवी के बगैर तो रह सकता था, बीटी के बगैर अब उसके बचने की कोई संभावना नहीं है.

मोदी जी! ऐसे में देश का कर्ज के बोझ से चरमरा रहा गरीब किसान क्या करें? क्या वह पुरानी तकनीक का इस्तेमाल करते हुए अपनी शेष बची कमर भी तुड़वा ले या खेती ही करना बंद कर दें? क्या आपकी पार्टी के नेता विज्ञान को लेकर अपने अन्धविश्वासों से आजाद नहीं हो सकते हैं? आपके ही एक मंत्री पियूष गोयल साहब ने एलएडी बल्ब को सारे भारत में घर घर तक पहुंचा कर यह साबित कर दिया है कि विज्ञान के नए अविष्कारों का पुरजोर समर्थन किसतरह सदियों का अँधेरा दूर कर सकता है. आपके दूसरे मंत्री मनोहर परिकर हमारी सेना को सबसे आधुनिक हथियार सबसे सस्ती कीमत पर मुहैया कराने के लिये दिन रात एक कर रहें हैं. क्या आपके कृषि मंत्री नयी तकनीक को लेकर उनसे कोई प्रेरणा नहीं ले सकते है? यदि कोई तकनीक महंगी है तो उससे किसानों को सदा के लिये वंचित करने से बेहतर क्या यह नहीं होता कि हम उसे ज्यादा मात्रा में खरीद कर उस क्षेत्र में और भी खिलाड़ियों के प्रवेश को प्रोत्साहित करते? क्या सरकारी डंडे के बजाये प्रतियोगी बाजार भारत के भविष्य के लिये ज्यादा उम्मीदों भरा नहीं होता?

मोदी जी! ्ञान-विज्ञान का विरोध करते रहेंआपके पास सफल मंत्रियों की गाथा भी है तो असफल होने की संभावना भी.. फैसला आपको करना है..

एड. दिनेश शर्मा
अध्यक्ष- स्वतंत्र भारत पार्टी, महाराष्ट्र
संपर्क:- ०९१३०३२७६६४

गाँधी नाम की दुकान

इस देश में गाँधी नाम के प्रमाणपत्र बाँटने का ठेका केवल गिने चुने खानदानों या उनके लाभार्थियों ने लेकर रखा है. इन लोगों को लेफ्ट से कोई समस्य...